सिन्धो॑रिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यहाः |
घृतस्य धाराअरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दत्रूमिंभिः पिन्वमानः ||
महान ज्ञान की धारायें इस प्रकार मेरे ह्रदय में गति करती है जैसे समुन्द्र की वायु से छिन्न भिन्न की जाने वाली शीघ्र गमन वाली लहरें विषम प्रदेश में गिरती हैं। ज्ञान की धारायें मेरे ह्रदय समुद्र को निरन्तर तरंगित करने वाली होती हैं। यह ज्ञानी पुरुष जाति आदि से उत्कृष्ट अरोपण घोड़े की भांति होता है। इस घोड़े की भांति यह भी शक्तिशाली होता है। संग्राम प्रदेशों का यह विदारण करने वाला होता है, अर्थात संग्राम में विजय प्राप्त करके यह ज्ञान की लहरों से प्रजाओ को सोचता हुआ गति करता है। इसकी जीवन यात्रा का क्रम यह होता है यह ह्रदय शोधन से ज्ञान प्राप्त करता है। आरोपण क्रोधशून्य व शक्तिशाली होता है। इन्द्रिया संग्राम में इन्द्रियों को विषयों से बचाता है। और अपने ज्ञान जल से औरों को भी सींचता है।