उपास्मै गायता नर: पवमानायेन्दवे |
अभि देवां इयक्षते ||
मनुष्यों को इस मन्त्र मे नरः शब्द से स्मरण किया गया है। नृ नये धातु से बनकर यह शब्द अपने को आगे ले चलने की भावना को अभिव्यक्त कर रहा है। जिस मनुष्य में उत्रत होने की भावना द्रढ़मूल है वह नर है। उत्रत होने के लिये क्या करना चाहिये। इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र इन शब्दों में देता है कि इस प्रभु के लिये उसके समीप उपस्थित होकर गायन करो। यह प्रभु की उपासना ही सब उत्रतियों का मूलमन्त्र है। प्रभु की उपासना करनी चाहिये क्योंकि वे पवित्र करने वाले हैं, परमैश्वर्य शाली है, देवों से सम्पर्क कराने वाले हैं।
यदि हम प्रभु की उपासना करेंगे तो वे प्रभु हमारे जीवन को पवित्र बनायेंगे। प्रभु स्मरण हमारी विषयोत्कष्ठा का विध्वंस कर हमारे जीवन को पंकलिप्त नहीं देते। विषय का अर्थ है विशेषरूप से बांध लेने वाला। इनका बन्धन वस्तुत: ही बड़ा ही प्रबल है। ये दुरन्त हैं, इनका अंत करना कठिन ही है। ये अतिग्रह पकड़ लेने वाले हैं।