विदया शरस्यं पितरं पर्जन्यं भुरिधायसम |
विदयो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम ||
गत सूक्त का आचार्य विधार्थी को शर नामक ओषधि का महत्व समझाता है। यह कोश वाक्य स्पष्ट कह रहा है कि यह ‘शर‘ सर है, जीवन को गतिमय बनाने वाला अथवा रूधिर की गति को उत्तम करने वाला। यह ‘मुज्ज‘ है शरीर की धातुओं का शोधन करने वाला है। इसका नाम बाण है। यह वाणी की शक्ति का उत्पादक है। गुन्द्र होने से नाड़ी संस्थान का उत्तेजक है। तेजस्वी बनाने से तेजनक नाम वाला है और सब दोषों का हिंसन करने से शर है। इसलिये ब्रह्मचारी का आसन भी इसी तृण का बनाया जाता है, उसकी मेखला भी इसी से बनती है। हम इस शर के उत्पादक को जानते हैं। वह परातृप्ति का जनक बादल ही तो है जो बहुतों का धारण व पालन करने वाला है। बादल से बरसाये गये पानी से इस शर की उत्पत्ति होती है। हम इस शर की माता के समान जन्म देने वाली इस पृथ्वी को भी अच्छी प्रकार जानते हैं, जोकि अत्यन्त सुन्दर आकार वाली अथवा तेजस्विता वाली है। जैसे माता पिता के गुण पुत्र में आते हैं, उसी प्रकार बादल व पृथ्वी के गुण इस शर में आये हैं। एवं, यह शर भूरिधायस् व भूरिवर्पस् है। यह हमारा धारण करता है तथा हमें तेजस्विता व सुन्दर आकृति प्राप्त कराता है।